Thursday, March 27, 2008

फिर भी ..


वही गलियां.. और वही डगर
फिर भी याद आता है अपना शहर


वैसी ही दीवारें.. वैसी ही गज़र
फिर भी सोचूं, मैं अपना वह घर


वैसा ही समां.. सुनूँ वही धुन अक्सर
फिर भी मन भागे, उसी बसर


वैसी ही माँ.. उनकी वैसी ही फिकर
फिर भी ढूंढूं माँ, तुम्हारी ही नज़र


वैसी ही शाम.. वैसी ही सहर
फिर भी तारे गिनुं मैं रात रात भर


तुम तो आते हो हर दिन लौट कर
फिर भी खड़ी मैं हर पल दर पर...

Monday, March 17, 2008

रब्बा ज़रूर करना.. माँ तुम्हे समर्पित !




कर दो नसीब भले ही आंसुओं का सैलाब किसी को
लग कर रो सके वह रब्बा , एक दामन ऐसा ज़रूर करना ..

अपने सारे ज़ख्मों को वो ठंडक का मरहम लगा पाये
एक दफा ज़िंदगी में रब्बा , एक सावन ऐसा ज़रूर करना ..


मिल सके उसको बारी बराबर , ज़माने की बाज़ियों में
पत्तों की तरह खेलें रब्बा , ताश हों बावन ऐसा ज़रूर करना ..


एक मर्यादा में हो जूनून , हर घात लगाये उस लुटेरे का
कलयुग नारी के लिए तुम रब्बा , एक रावण ऐसा ज़रूर करना ..


जो अपनी हकीक़तों के खौफ से कभी चैन से सो ही न सका
आखिरी नींद का सपना तो रब्बा , मनभावन ऐसा ज़रूर करना ..


फूलों का साथ ले , जो राख बनकर घुला बहा जा रहा है
आज गंगा में मोक्ष उसका रब्बा ...एक पावन ऐसा ज़रूर करना ..