Wednesday, June 25, 2008

मैं तुम और एक ख्वाब ...



घर लौटे जब तुम ,तुमने मुझे
दरवाज़े पर इंतजार करते पाया
गले लगा कर जब तुमने आंखों में झाँका
उनकी चमक से कुछ अंदेशा लगाया


तुमने "सच " हौले से कह
अपना वो अन्दाज़ा मज़बूत किया
मेरी मुस्कुराहट पर तुमने
मुझे माथे पर चूम लिया


फिर शुरू हुआ हमारे रिश्ते का
एक नया -अनदेखा पर मासूम सा सफ़र
हर पल तुम मुझे बचाते और सँभालते
मेरे हर लडखडाते कांपते कदम पर


तुम अक़्सर मुझसे पूछते
वोह होगा .. या वोह होगी ..?
मुझे उलझन में देख यही बोलते
कि देखना , परी जैसी होगी ..


तुम जब नहीं होते मेरे करीब
मैं तुमको अपने भीतर महसूस करती
तुम आकर जब छूते मुझे तब मैं
एक सुखद हलचल महसूस करती


तुम मुझे फल न खाने पर समझाते ..
तुम मुझे गीता' के छंद सुना सुलाते ..
तुम मेरा आँचल ढलने पर सँभालते ..
और मुझे उदास देख तुम कितना हंसाते


माँ की कमी मुझे कभी न खलने देते
मुझे तुम कितनी सारी हिदाएतें देते
मेरी दवाएं तुम हमेशा याद दिलाते
हर शाम फिर मुझे सैर पर ले जाते


मुझे ऊन के बिनौले बुनने को कहते
उन्ही रंगों के कुछ सपने भी बुनते
रात में जब जब मेरी नींद टूटती
तुम मेरे फिर सोने तक जगते रहते


नामों और खिलौनों का घर पर ढेर था
खिलखिलाती तस्वीरों से हर कोना महका रखा था
तुम्हारी बेसब्री और मेरी बेचैनी बढ़ रही थी
मैं हूँ ना , मुझे ऐसे तुमने यकीन करवा रखा था


मेरी तपस्या और तुम्हारी बंदगी
आज पूरी हो गयी थी
मेरी वेदना तुम्हारे चेहरे की देख खुशी
आज कहीं गुम हो गयी थी


तुम्हारे हाथों में आज इस क्षण
हमारा अंश जीवन देख रहा था
हाँ वोही कोमल सलोना' सा ख्वाब
करवटें ले मचल रहा था


मुझे तुम्हारे इस रूप को देख
ख़ुद पर गुरूर हो रहा था ..
अब और एक अलग खुशनुमा रुख में
हमारा रिश्ता बदल रहा था ..

Thursday, March 27, 2008

फिर भी ..


वही गलियां.. और वही डगर
फिर भी याद आता है अपना शहर


वैसी ही दीवारें.. वैसी ही गज़र
फिर भी सोचूं, मैं अपना वह घर


वैसा ही समां.. सुनूँ वही धुन अक्सर
फिर भी मन भागे, उसी बसर


वैसी ही माँ.. उनकी वैसी ही फिकर
फिर भी ढूंढूं माँ, तुम्हारी ही नज़र


वैसी ही शाम.. वैसी ही सहर
फिर भी तारे गिनुं मैं रात रात भर


तुम तो आते हो हर दिन लौट कर
फिर भी खड़ी मैं हर पल दर पर...

Monday, March 17, 2008

रब्बा ज़रूर करना.. माँ तुम्हे समर्पित !




कर दो नसीब भले ही आंसुओं का सैलाब किसी को
लग कर रो सके वह रब्बा , एक दामन ऐसा ज़रूर करना ..

अपने सारे ज़ख्मों को वो ठंडक का मरहम लगा पाये
एक दफा ज़िंदगी में रब्बा , एक सावन ऐसा ज़रूर करना ..


मिल सके उसको बारी बराबर , ज़माने की बाज़ियों में
पत्तों की तरह खेलें रब्बा , ताश हों बावन ऐसा ज़रूर करना ..


एक मर्यादा में हो जूनून , हर घात लगाये उस लुटेरे का
कलयुग नारी के लिए तुम रब्बा , एक रावण ऐसा ज़रूर करना ..


जो अपनी हकीक़तों के खौफ से कभी चैन से सो ही न सका
आखिरी नींद का सपना तो रब्बा , मनभावन ऐसा ज़रूर करना ..


फूलों का साथ ले , जो राख बनकर घुला बहा जा रहा है
आज गंगा में मोक्ष उसका रब्बा ...एक पावन ऐसा ज़रूर करना ..

Sunday, February 24, 2008

यह कैसा जहाँ जिसके दो ध्रुव जुदा ..


किसी ने घूंघट खोला है कहीं खुशी का
तो किसी की पलकों में कैद आज नमी है
सुना है घर किसी का रोशन है बेपनाह,
तो कहीं एक अहले दिल ज़ख्मी है

कहीं फ़सले गुल हर तरफ़ है फैला
तो कहीं बर्बादी कर रही 'सुनामी' है
कोई उड़ रहा है अपने आसमां में
तो ज़लज़ले की कब्र बनी कहीं ज़मीं है

क्रिसमस की है खुशियाँ मन रहीं कहीं
तो ईद की निदा वहाँ धमाकों से थमीं है
औरत चाँद के रथ पर है सवार आज
तो कहीं ‘नसरीन’ नज़रबंद सहमी है .

आज कोई खुशी से कहकहे लगा रहा है
तो किसी की आह में भी कुछ कमी है
खड़ी है मौत ज़िंदगी के सामने बेबस,
तो कहीं सासों से ही मजबूर आदमी है ..

Wednesday, January 16, 2008

बस खुदा याद आया ..


आँखें जब भी बंद की , एक चेहरा रोशन होता पाया ,
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया ..

दिल की गहराइयों से जैसे यह अहसास उभर कर आया
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया ..

हाथ की सारी लकीरों से बस तुम्हारा नाम बनता पाया
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया ..

होठों की मुस्कानों की वजहों में बस तुमको पाया
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया..

जिन्दगी की हर राह को तुम तक खत्म होते पाया ,
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया ..

तुम पर लिखी हर ग़ज़ल को एक इबादत बनते पाया
तुमको जब जब देखा , मुझे बस खुदा याद आया ..

ज़माने ने भी एक दिन मुझे काफिर ठहरा दिया
तुमको जब जब देखा .. मुझे बस खुदा याद आया ..


मौत को भी अपने सामने मजबूर होता पाया क्योंकि
तुमको जब जब देखा .. मुझे बस खुदा याद आया ..बस खुदा याद आया ....




Thursday, January 10, 2008

टीस


जब जब मेरे कलम की स्याही बनी टीस,
मेरे ज़ख्मों की दवाई बनी टीस

जब जब मेरे हूक -ऐ -हलक की आह बनी टीस,
मेरी खामोशी की वजह बनी टीस

जब जब मेरी एक बेनूर परछाई बनी टीस,
वहीं एक ताबिंदगी दिखती बनी टीस

जब जब मेरी करवटों की रात बनी टीस,
सुबह सलवटों में बन कर मिटी टीस

जब जब अश्कों में काजल घुल कर गुजरी टीस,
हर रंजो ग़म को स्याह कर .. बिसरी टीस ।

Thursday, December 6, 2007

सोचो या समझो ..

पत्थर गिराया है आज तूने अहसासों के पानी में
सोचो तो गहराया दायरा, समझो तो उभरी शकल है
मश्क़ कहाँ ले जाएँ , शायर की सोच बड़ी गज़ब है
सोचो तो लफ्जों का हुजूम , समझो तो इक ग़ज़ल है ..

आफरीन जो भरते हो अहले-कलम के इन शेरो पर
सोचो तो फन बेनज़ीर, समझो तो दिल का खलल है
इंसानों की भी कल्बे हिकमत अजब है , क्या कहना
सोचो तो दो मजारें हैं, समझो तो ताज महल है..

Friday, November 30, 2007

इस दुनिया में हर एक शख्स


रेत के पानी में खोकर ख़ुद को अपनी प्यास बुझा रहा है..
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

काटों के बिस्तर में जर्जर चादर ओढ़ अपनी थकान मिटा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

जले कागजों औ' खाली बोतलों के बाज़ार में जाने क्या खरीद रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

मजबूरी की अपनी इस मिटटी से बनावटी मुस्कानें उगा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

घंटों और क्षणों की सुइयों में फँसी बस अपनी सासें छुड़ा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है..

Thursday, November 29, 2007

मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...


मुझे याद है अपना वह सफर
जिसमें वो हमसफ़र मुझे मिला था ..
बस के उस शोर और भीड़ भाड़ में भी
दिल को किसी दिल से संकेत मिला था ..

मैंने अपने बारे में बेहिचक बताया,
जब उसने मेरा नाम पूछा था .
सुना जब , हंस के यह कहा की
अरे ! मैंने तो ज़िंदगी सोचा था ..

मैंने भी उससे परिचय माँगा था
वह जाने क्यों मुकरने लगा था
मेरे खफा होने पर फिर
मुझे देख मुस्कुराने लगा था ॥?


बातचीत का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ
मुझे वह सफर मंजिल सा लगने लगा
हम एक दूसरे से कितना मिलते थे .
उससे आँखें हटाना मुश्किल सा लगने लगा

कितना जादू था उसकी बातों में ..
और तहजीब ऐसी जो सबको लुभा रही थी
मैं उसके बगल मैं बैठी
अपनी किस्मत पे इतरा रही थी ..

एक रोते बच्चे को उसने गोद में बैठाया
हर एक कोशिश कर उसको शांत कराया
खांसते हुए एक बाबा को अपनी बोतल से
सारा पानी पिला कितना पुण्य कमाया ..

बस जैसे जैसे चलती जा रही थी
मैं उस अनजाने की होती जा रही थी
एक फ़ैसला मन में कुछ कर लिया था
किसी जज्बे की हिमायती हुयी जा रही थी

मेरा सफर अब खत्म हो चुका था ..
उतरी इस खयाल से की ज़रूर
पीछे से कोई आवाज़ आएगी ..
पता चाहता हूँ आपका ..कहेगा ,
..कि मुझे आपकी याद बहुत आएगी

मेरा अंदाजा ग़लत था ..
मैं थकी चाल से चलने लगी थी
धूल उड़ा कर मेरे चेहरे पे
वह बस अब बोझिल होने लगी थी

रात उसी के ख्यालों में बीती
आँखें सुबह उठी तो गीली थी
उसका चेहरा याद आ रहा था ..
दिल उसकी तरफ़ भागा जा रहा था .

फिर एक ख़बर पढी
अखबार पर जब नज़र पढी
कल एक बस में विस्फोट हुआ
मेरी आखों में जैसे अँधेरा छाया !
कल बैठे कई मित्र बने थे
आज .. सब खत्म हो चुके थे


हुलिया जो उसका उस कागज़ पे ज़िक्र हुआ था
यही जाना कि मेरा शख्स एक 'मानव -बम ' था
ले गया अपने संग कितने प्राणों को ..
अब जाना .. क्यों मुझे ज़िंदगी पुकारा था ..

उसने अपना यह बदनुमा और ज़ुल्मी पहलू
मेरी नज़रों से किस तरह बचा रखा था
मैं आज मातम करूं तो कैसे उन बिखरे फूलों पर ..
कि ..मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...


बच के रहिएगा आप भी ऐसे किसी मुखौटे से
जो संग चले आपके .. पर मकसद एक न हों ..
आपके ज़हन पर छा जाए एक बादल कि तरह
पर उसके मनसूबे और इरादे नेक ना हों ..


आप भी न वह पछतावा करें जो मैंने कभी किया था ..
जुबान से न कभी यह निकले
कि ..मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...

Tuesday, November 27, 2007

.. और मैं जीती गयी


प्यास लगी और पानी सामने मिला
बुझाई तो मैंने , लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..समंदर खारा ही मिला
और मैं पीती गयी , और मैं जीती गयी .

दिल लगा और दिलबर का संग मिला
मुकाम हुआ मेरा ,लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि.. मकान खाली ही मिला
और मैं रहती गयी ,और मैं जीती गयी

थकान हुयी और पलंग मिला
नींद आ गयी ,लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..अलग जहाँ होता गया
और मैं सोती गयी , और मैं जीती गयी

शायरी सूझी और लव्ह -ओ -कलम मिला
लिखा बहुत कुछ , लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..माहौल ग़मगीन बन गया
और मैं लिखती गयी , और मैं जीती गयी



Monday, November 26, 2007

वो नज्म




रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ज़्यादा लगी ...

कभी कुछ समझा ..कभी कुछ भूला
कभी कुछ गौर करके उसे भी भुलाया ..
कुछ नज़रंदाज़ करके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम बेरुखी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

उसको रोका भी न था मैंने
मन को मनवाया भी न था मैंने
'उनकों ' तरसाके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम दिल्लगी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

अब हंसती हूँ तो अकेले में
अब गाती भी हूँ तो अकेले में ..
महफिल न जाकर कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम सादगी ज़्यादा लगी ॥

रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ,बेरुखी ,दिल्लगी और सादगी ज़्यादा लगी ...

सिर्फ़ एक दिखावा है..

असलियत के बुत पर जैसे .. नकली पहनावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

आंखों से जो दिखता .. वो तो एक छलावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

न मिलेगा चैन तुझे यहाँ ,यह मेरा दावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

एक पल की मोहब्बत ही अब आब -ओ -हवा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

हर दम भागते हम बंदो का क्या काशी क्या काबा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

न सोचने के लिए ख्याल है ,न जज्बों का जमावा है
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

अकेले दिन गुज़ारते हैं , आया न यार का बुलावा है ,
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है


लफ्जों से छलकता तेरा दर्द पाता बस वाह - वाह है
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ॥

Friday, November 23, 2007

ज़रूरी तो नहीं..


लाखों परिंदों को देखूं गर इस शहर में ..
ज़रूरी नहीं कि हर पंख आज़ाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

दूर तक फैली इन घनी भरी आबादियों में
ज़रूरी नहीं कि हर जान आबाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि दफा दाद मिले ..

हमसफ़र ढूँढती हूँ मैं जो इस तिशनगी में
ज़रूरी नहीं कि एक दिन वो दिलशाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

सोच रही हूँ जो बसाने महल मैं उम्मीदों का
ज़रूरी नहीं कि एक दर्हकीकत बुनयाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

वजूद पर करेंगे सारे सवाल मेरे अपने ही
ज़रूरी नहीं कि जवाब उन्हें मेरे बाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

Friday, November 2, 2007

कि.. , मुसाफिर हूँ मैं…


एक नए सफर और एक नई खोज के साथ
राहों में फिर , हाजिर हूँ में

कि.. , मुसाफिर हूँ मैं…

उलझे कई जवाबों मैं
एक सुलझा सा सवाल बन ,

ज़ाहिर हूँ मैं …
कि.., मुसाफिर हूँ मैं …

चलना ही मेरा मज़हब -ओ -इमान है ..
कोई कहता है कि ,
काफिर हूँ मैं

कि.., मुसाफिर हूँ मैं …

मंजिलों का पता नहीं मुझे
चला उन पड़ावों -की ही

खातिर हूँ मैं ..
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …

जब साँस टूटे और
खोने हौसला लगे
बोलूँगा बस कि ..
इंसा आखिर हूँ मैं
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …

Thursday, November 1, 2007

अनचाहा इजहार ..

जानती हूँ ,मोहब्बत तुमने मुझसे बेहद की ..
इन्तहा मेरी मजबूर , पर कम ना थी ....
फर्क बस इतना था ..वह सफर ही अजीब था ..
फासले बहुत थे और लम्हे नहीं थे
कभी तुम ..तो कभी हम , 'कहते ' नहीं थे ..

फिर जुदा हो गए रास्ते बदल गए ..
जाते जाते तुम कई बार मुडे ..तुम्हें देख हम भी रुके
आज तुमने मुझे बेक़दर कह ,वह सब कुछ भुला दिया है ..
और मैंने तुम्हें नादान समझ हर वक्त याद किया है ..हर पल याद किया है ..

हाँ .. तब भी किया था ..हाँ .. अब भी किया है ..

कभी न बात करना अब हमसे तुम मोहब्बत की यारा ,
निभाई मैंने हर रस्मे उल्फत , फिर भी अनगिनत इल्जाम हैं ..

यह कैसा दौर है ज़िंदगी का मेरा ..
तकिया रहता है नम मेरा ..ख्वाब आज फिर तमाम हैं ..

Wednesday, October 31, 2007

एक सोच


तारे हैं कम .. या दामन ही छोटा हो चला है
वक्त नहीं कटता या दिन ही बड़ा हो चला है

पाँव नहीं थकते .. या पड़ाव ही पास हो गया है
अभी शाम नहीं हुयी या घर ही दूर हो गया है

तन्हाई आस पास है.. या इक साथी ही मिल चुका है
आँखें बंद न होवें, या मेरा चैन ही खो गया है

हकीक़त अब सामने है ..या परदा ही उठ गया है
कलम अब खाली है या एहसास ही सो गया है..

Tuesday, October 30, 2007

चाँद का दर्द


चेहरे पे एक अमिट दाग़ का निशाँ
नसीब में मेरे अँधेरा सिर्फ रात का .
मेरा कोई मुक़र्रर रूप नहीं किया
रौशनी के लिए भी.. मोहताज किया..
क्यों पूजती हो मुझे.. ?
अपने प्रेम की लम्बी उम्र के लिए .
जब मैं अपनी ही चांदनी का ,
कभी मुहाफिज़ न हो सका..

Monday, October 1, 2007

ऐसा कभी आसमा ही नहीं मिला


ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..
जिसकी छत से तारों को देखना सकूं ऐसा कभी मकान ही नहीं मिला ..

घर महका हो जिसके आने पर ऐसा कभी मेहमान ही नहीं मिला ...

ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

दिल बहला सके मेरा जो तनहाई में ऐसा कोई साजोसामान ही नहीं मिला ।

ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

रूह तक मेरे जो शामिल हो जाये ऐसा कोई फ़रहान ' ही नहीं मिला
ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

Monday, September 24, 2007

ए मौला ..


मेरी आंखों के हर एक आंसू को किसी प्यासे का जल कर दे, मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला

औंधे बेजान पडे कुछ सपनों में आज थोड़ी सी हलचल कर दे, मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला

हर परिंदा बसेरे को लौटे इस मियाद को एक पल कर दे , मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला


Thursday, September 20, 2007

उम्र के यह अठआयिस वर्ष


सत्रह मई उन्नीस सौ उन्यासी
और छः बजकर बीस मिनट
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

दादी की गोद से माँ के आँचल तक
बाबा की छाया से बहन के साथ तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

चार बाग़ के स्कूल से "आई पी एम " तक
बचपन के घर से विकास नगर तक
लखनऊ से फरीदाबाद तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

अपने पहले लाल भालू से
सचमुच के "मानस " तक
अवी के मधुर प्रेम से
लवी की प्यारी आंखों तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष ..
विवाह की अनगिनत स्मृतियों से
ताज महल की छवियों तक
दो वर्ष की ख़ुशी और गम से
उन नन्हे पैरों की आशा तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

एक बेटी.. एक बहन..
फिर एक पत्नी एक बहु
और आज माँ बनने की ख्वायिश तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

Wednesday, September 19, 2007

यादें




होंठों को मुस्कान देती यादें तो कभी,
आंखों को हमाम बनाती यादें॥

उम्मीदों को आग देती यादें तो कभी ,
ज़हन पर दाग छोडती यादें ॥

आसमान को देख उड़ने को कहती तो
कभी
दरवाज़ा बंद कर रोने को कहती यादें

पल पल चुनके डायरी लिखने को कहती यादें तो कभी उनको
महज़ कागज समझ फाड़ वाती, जल्वाती, और धुआं बनवाती यादें.

Tuesday, September 11, 2007

पीहर से चलते चलते..


माँ अन्तिम शय्या पर है,
बाबा छुप छुप के रोते हैं.

घर मेरा उलझा सा पडा है.
सन्नाटे हर दम गूंजते हैं॥
माँ इतना जान लो, कि में जा तो रही हूँ ..पर
अपनी आत्मा , अपना वजूद सब तुम्हारे पास छोड़े जा रही हूँ॥
तुम बस अपना ख़्याल रखना माँ !

मेरी व्यथा यह है कि मैं एक लड़की हूँ.
न मैं पीहर की हो सकी हूँ और न मैं ससुराल की हूँ....
मैं चुप रहती हूँ तो लोग मुझे असामाजिक कहते हैं..
जब बोलती हूँ तो सभी मुझे निर्लज्ज कहते हैं..
मैन जब रोती हूँ तो लोग मुझे बेचारी या फिर ढोंगी बुलाते हैं.
मैं जब जब हंसूं तो स्वार्थी बोल लोग धिक्कारते हैं..
बड़ी अजीब सी जिन्दगी है मेरी
खाली हाथ और खाली से दिन
खाली सी सांझ खाली से पलछिन ।

आईने में मैंने जब जब अपनी सूरत निहारी है

तब तब अक्स ने कहा है ..

मुझे जिन्दगी नाम की बीमारी है..


Thursday, September 6, 2007

निसार किया मैंने ..

एक सांस से दूसरी सांस जहाँ तुमने जोडी उस फसेलाह में मुझे कभी देखो ना
पलकों की झपक से दूसरी झपक के उस हर एक लहेजाह में मुझे कभी देखो ना

धड़कन की मद्धम सरगम में रंगी हर इक गिरह में मुझे कभी देखो ना
जिस्म की हर हलचल और रगों में दौडते हर कतरे में मुझे कभी ना

लिखा तुमने जिससे मजबूर होके आज तक , उस आशिकानाह में मुझे कभी देखो ना
साहिल से टकराकर वापस सागर को लौटती उस लहर लहर में मुझे कभी देखो ना
तराजू के उस मजबूर कांटे में उलझी दर गुज़र में मुझे कभी देखो ना
काजल घुलकर जो रुखसार पे बिखर गया ,उस ख्वायिश की सूखते शराबोरों में मुझे कभी देखो ना
फिर अपने जिस रुमाल से उसको पोंछा उसके रेशों में बाक़ी एक दाग में मुझे कभी देखो ना

सामने होकर भी तुम कितने धुंधले दिखते हो नम आखों से देखती हूँ जब भी ,तुम मुझे अपने लगते हो
पथराई आंखों में उफनते कई एक सैलाबों में मुझे कभी देखो ना ..

जो कभी दर्मन्दाह ना होंगी उन नज़रों निगाहों में मुझे कभी देखो ना

इश्क से वाबस्ता जो चश्म है तुम्हारी , उस नज़र की बेबाकी को कभी देखो ना
जो
खुद में एक खुदा पोशीदा है उसकी अल्ताफे खुदाई को कभी देखो ना

सजदा .

शीशे के अपने इस दिल में उभरती मेरी शक्ल को कभी देखो न ...
मेरी होंठों पे गहराती उस हँसी की वजह को तुम कभी देखो न ...
देख कर जो अनदेखा करते हो उस रुखसार को कभी देखो न ..
सुन कर भी जो अनसुना करते हो उस इजहार को कभी देखो न ..

सुहानी सुबह से लेकर मस्तानी शाम तक कभी देखो न ..
सौंधी ज़मीन से लेकर नीले आसमान तक कभी देखो न ..
ताल्लुक इस कदर गहरा है की .. पलकें अपनी बंद करके कभी देखो न ...
जज्बों से उभरी दरारों से ये दीवारें चन्द करके कभी देखो न ...

जो हर हकीकत से भी हक हों उन तसवुर्रों को कभी देखो न
खुली आंखों से दिन के उजाले में उन सितारों को कभी देखो न ..
ख़ुद से होती तुम्हारी बातों को फिर मुझसे हुई मुलाकातों को कभी देखो न ..

फर्क नहीं मिलेगा तुम्हें ज़रा भी ,
ज़रा इन राज़ -ओ -नियाजों को कभी देखो ना

उस मखमली असर और अपनी खुशनुमा नींद में कभी देखो न ..
फिर अपने ख्वाबों के भी दायरे से कहीँ दूर जाके कभी देखो न ..
करवटों पे न टूटें ऐसी इस्तिराहतों में कभी देखो न ..
दो मज़हब मिल जाएँ जहाँ उन अफाकों में कभी देखो न ..

हम तो बेखुदी के आलम में किस कदर गिरफ्तार हैं यह कभी देखो न ..
की हमारी नशीली नज़रों में अब तक कायम असरार है यह कभी देखो न ..
तनहा पलों ,दुष्कर मौसमों और उन पाँच रातों में मुझे कभी देखो ना ..
अपनी तड़पन ,अपनी धड़कन और अपनी आखों की शबनम में मुझे कभी देखो न ..


नज़र आपकी जहाँ जहाँ गयी ..वोह हर जगह मेरे लिए काबिल -ऐ -सजदह है ..
अब यह कहना मोहब्बत की जाक होगी की हमदम मेरा मेरे लिए आली -जाह है . .

एक शायर की अदा

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
निढाल कश्ती को उठा कर गिराती एक लहर को कभी देखो ना ..

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
बस चार रात बिताकर चुराती एक नज़र को कभी देखो ना ..

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
वक्त को भूल काटों को थमाती एक गज़र को कभी देखो न ..


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
अपनी ही शाखों को तोड़ गिराती एक शज़र को कभी देखो ना ..


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
की चाहकर भी आँखें न खुलें इक्क ऐसी सहर को कभी देखो ना .....


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
तजुर्बों को आज तर्कों से बताती 'बस एक सिफर ' को कभी देखो ना

मेरी मिट्टी ही अलग है..


एक अडियल वृक्ष जैसे बन चुकी हूँ मैं
ज़मीन में दूर तक समां चुकी हूँ मैं


जिस घर की मैं पचीस बरसों तक छांव बनी॥
उस आंगन से अस्तित्व अलग होता हुआ और
ख़ुद को उखडता हुआ देखना , मुझे गवारा नहीं.........

इल्तजा ..



अपने इश्क की कलम से उतरती अहसासों की स्याही
इंतज़ार की मुश्किल घड़ियाँ गिन गिन कर
मेरी खैरियत की दुआ करती कई धागों सी ही
उन्ही कई वादों से सराबोर गजलों में ..
यादों से रंगी मुझे सारी लड़ियों में ,
कभी देखो ना..

कल शायद मेरी हंसी झुर्रियों में हो जाए गुम और
उम्र इजाज़त न दे आने को तुम्हारी बज्मों में कि
अलफ़ाज़ भी तब और सूखे हों चले
इसलिए आज आज अपनी मसरूफियत से जुदा कर वक़्त के पन्ने
जीं भर कर यह लिख दो कि ..
कभी देखो ना..
इस बार बार कि इल्त्जाओं में लिपटे मेरे किसी इजहार को कभी देखो ना
तुम्हें सोच सोच कर जो रात काटी उस अख्तार्शुमार को कभी देखो ना
राहों में जो नज़रें आज भी पडी हैं उन पत्थरों को कभी देखो ना
गुजरने पर तुम्हारे ,कानों पर पड़ती उन सदाओं को कभी देखो ना
भटक जाओगे , आगे जाके एक बार इन पर बनी दिशाओं को कभी देखो ना ॥
पलकों को कैसे बोलूं कि अब कभी झपको ना ..
सासों को कैसे बोलूँ कि अब कभी बहो ना ॥
इस दिल को कैसे बोलूँ कि अब कभी धड़कओ न ..
इस जुबां को कैसे बोलूँ कि अब कभी बोलो न ...
एक बार बस देख लूँ तुम्हें फिर न कहूँगी की कभी देखो ना ..
छू कर एक यकीं कर लूं फिर न कहूंगी कि कभी देखो ना..
तुमसे मिल कर एक सुकून पा लूँ फिर न कहूँगी की कभी देखो न..
छूटेगा फिर अगर संग जिन्दगी से भी मेरा तब भी ना बोलूंगी की ..

कभी देखो ना ..कभी देखो ना ..

Friday, August 24, 2007

एक और सच


कड़वा हो विष प्याला जितना भी मीरा को
पीना पड़ता ही है

इश्क उसका जीते या हारे हर शायर को
लिखना पड़ता ही है

ज़ंग जितनी ही लम्बी हो,हर सिपाही को
लड़ना पड़ता ही है

पाप कोई कितने भी धोये,गंगा को
बहना पड़ता ही है

सर्प लिपटे हो जितने भी ,चंदन को
महकना पड़ता ही है

चाह पूरी हो न हो उस मूरत को
पूजना पड़ता ही है

कल हम हों न हो..आज के लिये
जीना पड़ता ही है.

मैंने कब कहा ..


मैंने कब कहा तुझसे की, अज़म को तू न मान..
मैंने तो बस यह कहा कि उसकी अज़मत को सिर्फ़ अज़म न मान ।

हम अपने गम भूल जाते हैं तेरे पास आ के
वही तो बस एक मुकाम है उसे सिर्फ़ एक बज़्म न मान ।

आज भी टूटे हुए दिल से निकलती है दुआ उसके लिए
यह मेरी ही एक एहातियाज़ है इसे इश्क कि कोई रस्म न मान.

कागज पर नहीं ज़हन पर पडी थी वोह तहरीरें उसकी
हाथ जिस राख से मैले हुए तेरे , उसे एक भस्म न मान।

सूख कर भी खिला क्या लिखा गया उसका वोह फूल
मश्क देखें हैं अब तक जो ,उसे मेरी कोई नज़्म न मान.

मैंने कब कहा तुझसे की, अज़म को तू न मान..
मैंने तो बस यह कहा कि उसकी अज़मत को सिर्फ़ अज़म न मान .

कभी देखो ना ..



सुबह अधखुली पलकों को ,
बिस्तर की अनगिनत सलवटों को
सोने के कितने ही बहानो को ,
तुमको तलाशती उन नज़रों को ....
कभी देखो न ...

धुले भीगे बालों को ,
मेंहदी से सजे हाथों को
काजल से भरे उन नैनों को
सुर्ख रेशम उन होंठों को ..
कभी देखो न ...

बोलती खामोशियों को ,
गूंजती सरगोशियों को
अधूरी मुस्कुराहटों को ,
भर आई उन आंखों को ...
कभी देखो न ...

उन पिघलती रातों को ,
अनगिनत ताल्लुकातों को
कितनी हयाज़ात नज़रों को
उन बेबाक अफसानों को ...
कभी देखो न ...

जाने कितने ..ख्वाबों को
धड़कती हुयी आहों को
तुम पर मिटती सासों को
अनदेखी पर मुनासिब मंजिलों को ...
कभी देखो न ...

इन हसीं नज़दीकियों को ..
लम्हों की गुज़ारिशों को ..
दिल की दिल से बातों को ..
नज़रों की ज़ुबानो को ..
कभी देखो न ......

मेरा हुस्नोशबाब तो तुम्हारी अमानत है ..उसे क्या देखोगे
मेरी हाँ सुनना तो तुम्हारी आदत है ..उसे क्या पूछोगे
हर नज़र तो मुझ पर इनायत है ..अब किस नज़र देखोगे
गुलाबों को भी तेरी हिदायत है ..अब उनमे क्या पाओगे ...........

कभी देखो न ...
तुमसे खिले रूप के इन रंगों को ..
अनकहे मेरे कुछ सवालों को ...
शोख नज़रों की इनायतों को ...
पहले गुलाब की पंखुरियों को ...
कभी देखो न ..






अंदाज़




मेरी हंसी पे मत जाना ए दोस्त
हमने गम छुपाने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ॥

मेरी आहों को तू साँस मत समझ
हमने जिए जाने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ॥

मेरी पलकों की हलचल को ऐसे मत देख
हमने अश्क पोछने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ..

मेरी धड़कन को तू सुना न कर
हमने तेरा नाम लेने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ॥

मेरी नब्ज़ थामकर तू क्या गिनता है
मने तेरी छुअन पाने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ॥

मेरा चेहरा ढक कर तू अब चला जा ॥
हमने नींद लेने के अंदाज़ महज़ बदल दिए हैं ..

तुम होते हो जब पास मेरे


जब रास्ते जाने पहचाने हो तो ..मंज़िल क़रीब लगती है ..
तुम होते हो जब पास मेरे हर साँस खुशनसीब लगती है..

सागर किनारे पड़े इन बेरंग पत्थरों में . .एक सीपी बड़ी अजीब दिखती है
तुम होते हो जब पास मेरे हर साँस खुशनसीब लगती है ..

उतार चढाव , खुशी गम , पाना खोना हर रंग में जिन्दगी हबीब लगती है ..
तुम होते हो जब पास मेरे हर साँस खुशनसीब लगती है ..

हाथ से छूटते पलों को देखकर भी जवानी उठकर 'ज़ेहनसीब ' कहती है ..
तुम होते हो जब पास मेरे हर साँस खुशनसीब लगती है ..

जब





अजनबी गलियां अपनी लगती हैं , जब वापिस आना मुमकिन हो ,
दर -दर अब क्या भटकोगे जब घर का दरवाज़ा ही बंद हो ...

मुकरर्र नहीं था साथ गुज़ारा वोह वक़्त हमारा ,
पल पल अब क्या सोचोगे जब ज़हन भूलने पर रजामंद हो ..

अनजाने में ही बसा लिए थे मैंने सपनों के कई महल,
तिनका तिनका अब क्या चुनोगे जब मुस्ताक्बिल में ही धुंध हो ..

गम भुलाने के लिए फरमाते रहें हम गज़लें कितनी ,
कतरा कतरा अब क्या लिखोगे जब डायरी के पन्ने ही चंद हो ..


क्या सच क्या झूठ


दायें को बायां और बायें को दायाँ ..
झूठा चेहरा दिखाता है ;
आइना भी सच कहाँ बोलता है ......

प्यार के बदले प्यार नहीं ,
वफ़ा के बदले वफ़ा नहीं ..
कुछ भी यहाँ कहाँ मिलता है ,
अपना भी अपना .., कहाँ होता है .....

हम कुछ सोचें - और कुछ होवें
हमें गुनाहगार बनाता है ;
खुदा भी साथ .., कहाँ देता है ...

क्या सच है ,क्या झूठ है ..
यह यहाँ कोई क्या जानता है ;
जिन्दगी तुझे .., कोई कहाँ पहचानता है .....

और मैंने जीना सीख लिया




छोटी छोटी ख्वायिशों में बड़े बड़े सपने ढूंढ़ना शुरू किया ..
और मैंने जीना सीख लिया


दूर रहकर तनहाई में ख्यालों से तुमसे जुड़ना शुरू किया

और मैंने जीना सीख लिया


चाँद की मखमली को भूल कर इक तारे का बिछौना बुनना शुरू किया ..
और मैंने जीना सीख लिया


अजीम जहाजों की जगह ..,कश्ती से समंदर तय करना शुरू किया
और मैंने जीना सीख लिया


उस खुदा की परस्तिश में नामुमकिन को मुमकिन करना शुरू किया
और मैंने जीना सीख लिया ..

कुछ कमी है


सिर पर है आस्मान और पाँव तले ज़मीन है ,
फिर भी लगता है जानेक्यों जैसे कुछ कमी है ॥

आंधी भी अब आती नही ,तेज़ बारिश भी थमी है ,
फिर भी लगता है जानेक्यों जैसे कुछ कमी है ॥

हर तरफ़ एक ठंडक है ,बर्फ भी अब तक जमी है ,
फिर भी लगता है जानेक्यों जैसे कुछ कमी है ॥

फूल बिखरे हैं चार्सू रह भी रेशमी है ,
फिर भी लगता है जानेक्यों जैसे कुछ कमी है ॥

धूप कड़कती गुम है , और रोशन अपनी अस्मि है ,
फिर भी लगता है जानेक्यों जैसे कुछ कमी है ॥

फितरत ही है ऐसी तेरी क्योंकि .. तू एक आदमी है ,शायद. .
इसलिए लगता है पल पल तुझे जैसे कुछ कमी है .........

जिन्दगी से जो नाता था..




ना मुझे उससे कुछ देने को रहा
ना उससे मुझे कुछ देने को रहा ..
जिन्दगी से जो नाता था वोह भी टूट गया ..

ना वोह मुझे कभी पहचान पाया
ना में उसे कभी जान पाया ..
आईने में वोह चेहरा दिलनशीं ना रहा ..
जिन्दगी से जो नाता था ....

वादा क्या ख़ूब तुमने भी निभाया ,
कस्मों की खातिर मैंने अपनों को भुलाया
तमाम हकीकातों को पल में झूठ किया ..
जिन्दगी से जो नाता था वोह भी टूट गया ..

ना मैं कभी उसके घर में जा सका
ना वोह कभी मेरे आशियें में आ सका
एक ठिकाना था , जो नशेमन ना बन सका ..
जिन्दगी से जो नाता था ...

यारी वोह कभी भी ना निभा सका ..
दोस्ती में भी कायम ना रख सका ..
दिल ही एक आशना था , संगदिल वोह भी रूठ गया ..
जिन्दगी से जो नाता था वोह भी टूट गया ..

जवाब तुम्हारे पास ना देने को रहा ,
सवाल मेरे पास भी ना पूछने को रहा ..
रुसवा हुए बेंतेहा हम ,शहर भी फिर छूट गया ॥

जिन्दगी से जो नाता था वोह भी टूट गया .

चेहरा बदलती है ..

ख्वायिशों के जंगल में मन -मृग सी भटकती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

रिश्ते नातों के बन्धन में एक डोर बनकर उलझती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

धुन्ध्लाते हुए आईने में एक उम्र बनकर घटती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

खामोश खंडहरों में एक सदा बनकर गूंजती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

वक़्त के आसमां में एक सांझ बनकर ढलती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

जुदाई के पर्वत से एक आंसू बनकर पिघलती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

ख्वाब ..तो कभी हकीकत , अपना नाम तक बदलती रहती है ..
ए मोहब्बत ... तू हर पल अपना चेहरा बदलती है ..

तलाश




खुशी ढूँढने निकले थे ,
गम के रेगिस्तानों में ...
मिली नहीं 'वोह ' हाँ..पानी ज़रूर मिला आंखों में ...

आशियाँ खोजने निकल पड़े ,डर कर खुले आसमानों से ..
पनाह मिली भी
कहाँ .. उन खामोश कब्रिस्तानों में ..

प्यार की तलाश भी अजीब थी ,
ढूँढी बाजारों और अन्जानों में ..इश्क दिखा .. मुझे पर ..,
किस्सों ,किताबों और कहानियो में ..

राहत भी कहाँ न खोजी मैंने ,
वीरानों और सुनसानों में ..हाँ .. झलक मिली हलकी सी जाते जाते !
पर उन चंद आखरी साँसों में ..

उस मुकाम पर



मेरे क़रीब से तुम ऐसे उठे ..
की अब लगता है जैसे साथ थे ही नहीं ..
सपने बटोरने के लिए वक़्त तो मिला..
पर उस मुकाम पर मेरे हाथ थे ही नहीं ..

सेज पर साथ देकर तुम सुबह ऐसे उठे
कि लगता है तुम उस रात थे ही नहीं ..
सपने बटोरने के लिए वक़्त तो मिला..
पर उस मुकाम पर मेरे हाथ थे ही नहीं ..

फिर एक दिन तुम अजनबी ऐसे हुए
जैसे दिल में कभी कोई जज्बात थे ही नहीं ...
सपने बटोरने के लिए वक़्त तो मिला..
पर उस मुकाम पर मेरे हाथ थे ही नहीं ..

लौट कर आए .. एक बार फिर तुम मेरे पास पर
तब वोह हालात थे ही नहीं ..
सपने बटोरने के लिए वक़्त तो मिला..
पर उस मुकाम पर मेरे हाथ थे ही नहीं ..

किस्मत ही कुछ ऐसी थी




हमने थक कर जब भी कहीँ सर रखा ..
वहाँ ज़मीन पथरीली थी ..
किस्मत ही कुछ ऐसी थी ..

जहाँ भी तूफानों से बच कर पनाह ली ..
वहाँ की छत टूटी थी ..
किस्मत ही कुछ ऐसी थी ..

खर्चने के लिए जब जेब में हाथ डाला ..
जवानी सारी गुज़र चुकी थी ..
किस्मत ही कुछ ऐसी थी ..

और ..कुछ लिखने के लिए जब कलम उठाया ..
डायरी पूरी भर चुकी थी ..
किस्मत ही कुछ ऐसी थी ..किस्मत ही कुछ ऐसी थी ..

Thursday, August 23, 2007

एक फलसफा



अनजाने ग़र खडें हों हर तरफ़ तेरे

तो तनहाई ही को तू गले लगा ले ,

मजबूरियां तेरी राहों में आयें तो
उन्हें अपना शौक बना ले ॥

ख्वाब टूटें बार - बार गर तो
उन्हें बस पानी बनाकर आंखों से बहा दे ,

अक्स ही गर तेरा तुझसे सवाल करे तो
आइना दिन -रात देखना भुला दे ॥

तेरा मीत गर ज़ख्मों से तुझे नवाज़े
तो तू इस दर्द को ही एक दवा बना ले ,

लफ्ज़ गर लड़ खड़ाये जब भी नाकामी पे तेरे ,
तो खामोशी अपनी जुबां बना ले ॥

रौशनी पर भी गर तू आगे न बढ़े
तो अपनी परछाई को सहारा बना ले ,

नहीं खत्म होगा यह सफर तेरा
तू हर मस्लक पर एक खेमा बिछा ले ..



तुम दूर हो या, कहीं नहीं हो ..

एक खामोश अजनबी सी सुबह ने जब खिड़की से झाँका , तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

कुछ धुन्ध्लाई यादों ने जब अपना निशाँ गहरा किया ,तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

एक रात जब घर की दीवार ने अपना अनजाना रंग दिखाया तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

फुर्सत में कभी जब तुम्हारे खतों को फिर से पढ़ा ,तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

चलते -चलते मैंने मुड़कर जब तुम्हें न पाया ,तब अहसास हुआ की
तुम नहीं हो .... कहीं नहीं हो.....

शायद...



खामोश रहना भी चाहती हूँ बातें करना भी चाहती हूँ
शायद मैं तुम्हें महसूस करना चाहती हूँ ॥

में रोना भी चाहती हूँ में हँसना भी चाहती हूं
शायद मैं तुम्हारे वो ख़त पढ़ना चाहती हूँ । .

तुमसे दूर जाना भी चाहती हूँ तुम्हारे नजदीक रहना भी चाहती हूँ
शायद मैं कोई नया इम्तेहान देना चाहती हूँ ॥

मैं डूब जाना भी चाहती हूँ मैं उबर जाना भी चाहती हूं
शायद मैं पानी को मुठी मैं लेना चाहती हूँ । .

जिन्दगी जीना भी चाहती हूँ मौत को देखना भी चाहती हूं
शायद मैं ख़ुद को साबित करना चाहती हूँ ...

तुम ना आये ..

आँखों में सावन भरे जाने
कितने मौसम बिताये ..लेकिन ,..तुम न आए ॥
हर आहट पर दौड़कर दर पर
कितने पल गुज़ारे ..लेकिन,.. तुम न आए ॥
इंतज़ार में घर महका
पतझड़ में भी फूल सजाये . ..लेकिन , तुम न आए ॥
तुम्हारी हर एक निशानी को देख देख
कितना हम रोये ..लेकिन ,.. तुम न आए ॥
एक नज़र ही सुकून मिले ,इसलिए
कूचे से तेरे कई बार निकले ..लेकिन ,..तुम न आए ॥
बेकदरी पर हम तेरी
मसरूफियत का बहाना देते गए ..लेकिन ,.. तुम न आए ॥
उन यादों का सिन्दूर भरे
बिन
अग्नि सात वचन निभाए ..लेकिन ,.. तुम न आए ॥
उन लम्हों के अक्स से ही
हम अपना दिल बहलाते गए ..लेकिन ,.. तुम न आए ॥
जिस राह संग छोड़ा तुमने
उसी शय उम्र गुजरने लगे ..लेकिन ,.. तुम न आए ॥
उम्मीद जिंदा तो थी पर .
आख़िर साँस न बचा पाए ..लेकिन, तुम न आए ॥
जिन्दगी से जाने के बाद भी
आकिबत हम अपना ना पाये ..लेकिन तुम न आए ..तुम न आए ..

I Am Not Orphan..


I am His child. .I am not orphan
I am a divine nascency do not count me in common,


I am His child.. I am not orphan
I deserve glory, being how am' germinated by a woman,

I am His child. .I am not orphan
I was guarded solely by a womb, an altruistic organ,

I am His child.. I am not orphan
I am a nature's legacy cant bear unfathered slogan,

I am His child.. I am not orphan
I am a lovechild though someone's darest devotion,

I am His child.. I am not orphan
Adopt me soon, my new Mom n Dad, why feel cumbersome,

I am His child.. I am not orphan !


If..


If.. our solitude had visage and silence had resonance,
We could have expressed that we have a soulmate too..

If.. those memories could be preserved and revisitable,
We could have boasted that we have a fab' fate too..

If.. our mirror could reflect a phenomenal image out of us,
We could have portrayed that we are pretty great too..

If.. we could monopolize the ever active clock of time,
We could have dictated that we are never late too..

If.. our wallet could acquire bliss from the emporiums,
We could have claimed that we are in stable state too..

If.. we could weave a cloak from words to shield us,
We could have justified that we are noble poet too..

Look God , She Moans...




You kept me gently like a feather..but
Within your decayed novel's page....

You blessed me with enduring wings...but
Dwelled me in rigid custom cage...

You created a gracious heart in me..but
Least acted in harmony with sage...

You polished me with your perfect eye...but
World viewed me through smutty gaze...

You abled me to blossom a bud...but
Cramps made me lost those spring days...

You set a mission to my entity..but
Compromises taken me out from the chase...

You existed me the most on cosmos.. but
Left me like a sun abstained with rays...