Thursday, March 27, 2008

फिर भी ..


वही गलियां.. और वही डगर
फिर भी याद आता है अपना शहर


वैसी ही दीवारें.. वैसी ही गज़र
फिर भी सोचूं, मैं अपना वह घर


वैसा ही समां.. सुनूँ वही धुन अक्सर
फिर भी मन भागे, उसी बसर


वैसी ही माँ.. उनकी वैसी ही फिकर
फिर भी ढूंढूं माँ, तुम्हारी ही नज़र


वैसी ही शाम.. वैसी ही सहर
फिर भी तारे गिनुं मैं रात रात भर


तुम तो आते हो हर दिन लौट कर
फिर भी खड़ी मैं हर पल दर पर...