Thursday, August 23, 2007

तुम दूर हो या, कहीं नहीं हो ..

एक खामोश अजनबी सी सुबह ने जब खिड़की से झाँका , तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

कुछ धुन्ध्लाई यादों ने जब अपना निशाँ गहरा किया ,तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

एक रात जब घर की दीवार ने अपना अनजाना रंग दिखाया तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

फुर्सत में कभी जब तुम्हारे खतों को फिर से पढ़ा ,तब अहसास हुआ की
तुम कितने दूर हो ॥

चलते -चलते मैंने मुड़कर जब तुम्हें न पाया ,तब अहसास हुआ की
तुम नहीं हो .... कहीं नहीं हो.....

1 comment:

Anonymous said...

You write very well.