Tuesday, September 11, 2007

पीहर से चलते चलते..


माँ अन्तिम शय्या पर है,
बाबा छुप छुप के रोते हैं.

घर मेरा उलझा सा पडा है.
सन्नाटे हर दम गूंजते हैं॥
माँ इतना जान लो, कि में जा तो रही हूँ ..पर
अपनी आत्मा , अपना वजूद सब तुम्हारे पास छोड़े जा रही हूँ॥
तुम बस अपना ख़्याल रखना माँ !

मेरी व्यथा यह है कि मैं एक लड़की हूँ.
न मैं पीहर की हो सकी हूँ और न मैं ससुराल की हूँ....
मैं चुप रहती हूँ तो लोग मुझे असामाजिक कहते हैं..
जब बोलती हूँ तो सभी मुझे निर्लज्ज कहते हैं..
मैन जब रोती हूँ तो लोग मुझे बेचारी या फिर ढोंगी बुलाते हैं.
मैं जब जब हंसूं तो स्वार्थी बोल लोग धिक्कारते हैं..
बड़ी अजीब सी जिन्दगी है मेरी
खाली हाथ और खाली से दिन
खाली सी सांझ खाली से पलछिन ।

आईने में मैंने जब जब अपनी सूरत निहारी है

तब तब अक्स ने कहा है ..

मुझे जिन्दगी नाम की बीमारी है..


2 comments:

डाॅ रामजी गिरि said...

"आईने में मैंने जब जब अपनी सूरत निहारी है
तब तब अक्स ने कहा है ..
मुझे जिन्दगी नाम की बीमारी है.."

BAHUT KHOOB....BAHUT KHOOB ....BEHATARIN PARIBASHA DI HAI ZINDAGI KI.

Anonymous said...

oh,really so good,i have not words to tell u how good it is.i was visualizing this peom,when i was reading this,so good,
keep it up,MAY GOD BLESS U