Thursday, September 6, 2007

सजदा .

शीशे के अपने इस दिल में उभरती मेरी शक्ल को कभी देखो न ...
मेरी होंठों पे गहराती उस हँसी की वजह को तुम कभी देखो न ...
देख कर जो अनदेखा करते हो उस रुखसार को कभी देखो न ..
सुन कर भी जो अनसुना करते हो उस इजहार को कभी देखो न ..

सुहानी सुबह से लेकर मस्तानी शाम तक कभी देखो न ..
सौंधी ज़मीन से लेकर नीले आसमान तक कभी देखो न ..
ताल्लुक इस कदर गहरा है की .. पलकें अपनी बंद करके कभी देखो न ...
जज्बों से उभरी दरारों से ये दीवारें चन्द करके कभी देखो न ...

जो हर हकीकत से भी हक हों उन तसवुर्रों को कभी देखो न
खुली आंखों से दिन के उजाले में उन सितारों को कभी देखो न ..
ख़ुद से होती तुम्हारी बातों को फिर मुझसे हुई मुलाकातों को कभी देखो न ..

फर्क नहीं मिलेगा तुम्हें ज़रा भी ,
ज़रा इन राज़ -ओ -नियाजों को कभी देखो ना

उस मखमली असर और अपनी खुशनुमा नींद में कभी देखो न ..
फिर अपने ख्वाबों के भी दायरे से कहीँ दूर जाके कभी देखो न ..
करवटों पे न टूटें ऐसी इस्तिराहतों में कभी देखो न ..
दो मज़हब मिल जाएँ जहाँ उन अफाकों में कभी देखो न ..

हम तो बेखुदी के आलम में किस कदर गिरफ्तार हैं यह कभी देखो न ..
की हमारी नशीली नज़रों में अब तक कायम असरार है यह कभी देखो न ..
तनहा पलों ,दुष्कर मौसमों और उन पाँच रातों में मुझे कभी देखो ना ..
अपनी तड़पन ,अपनी धड़कन और अपनी आखों की शबनम में मुझे कभी देखो न ..


नज़र आपकी जहाँ जहाँ गयी ..वोह हर जगह मेरे लिए काबिल -ऐ -सजदह है ..
अब यह कहना मोहब्बत की जाक होगी की हमदम मेरा मेरे लिए आली -जाह है . .

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