
निढाल कश्ती को उठा कर गिराती एक लहर को कभी देखो ना ..
एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
बस चार रात बिताकर चुराती एक नज़र को कभी देखो ना ..
एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
वक्त को भूल काटों को थमाती एक गज़र को कभी देखो न ..
एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
अपनी ही शाखों को तोड़ गिराती एक शज़र को कभी देखो ना ..
एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
की चाहकर भी आँखें न खुलें इक्क ऐसी सहर को कभी देखो ना .....
एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
तजुर्बों को आज तर्कों से बताती 'बस एक सिफर ' को कभी देखो ना
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