Friday, August 24, 2007

मैंने कब कहा ..


मैंने कब कहा तुझसे की, अज़म को तू न मान..
मैंने तो बस यह कहा कि उसकी अज़मत को सिर्फ़ अज़म न मान ।

हम अपने गम भूल जाते हैं तेरे पास आ के
वही तो बस एक मुकाम है उसे सिर्फ़ एक बज़्म न मान ।

आज भी टूटे हुए दिल से निकलती है दुआ उसके लिए
यह मेरी ही एक एहातियाज़ है इसे इश्क कि कोई रस्म न मान.

कागज पर नहीं ज़हन पर पडी थी वोह तहरीरें उसकी
हाथ जिस राख से मैले हुए तेरे , उसे एक भस्म न मान।

सूख कर भी खिला क्या लिखा गया उसका वोह फूल
मश्क देखें हैं अब तक जो ,उसे मेरी कोई नज़्म न मान.

मैंने कब कहा तुझसे की, अज़म को तू न मान..
मैंने तो बस यह कहा कि उसकी अज़मत को सिर्फ़ अज़म न मान .

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