Thursday, September 6, 2007

इल्तजा ..



अपने इश्क की कलम से उतरती अहसासों की स्याही
इंतज़ार की मुश्किल घड़ियाँ गिन गिन कर
मेरी खैरियत की दुआ करती कई धागों सी ही
उन्ही कई वादों से सराबोर गजलों में ..
यादों से रंगी मुझे सारी लड़ियों में ,
कभी देखो ना..

कल शायद मेरी हंसी झुर्रियों में हो जाए गुम और
उम्र इजाज़त न दे आने को तुम्हारी बज्मों में कि
अलफ़ाज़ भी तब और सूखे हों चले
इसलिए आज आज अपनी मसरूफियत से जुदा कर वक़्त के पन्ने
जीं भर कर यह लिख दो कि ..
कभी देखो ना..
इस बार बार कि इल्त्जाओं में लिपटे मेरे किसी इजहार को कभी देखो ना
तुम्हें सोच सोच कर जो रात काटी उस अख्तार्शुमार को कभी देखो ना
राहों में जो नज़रें आज भी पडी हैं उन पत्थरों को कभी देखो ना
गुजरने पर तुम्हारे ,कानों पर पड़ती उन सदाओं को कभी देखो ना
भटक जाओगे , आगे जाके एक बार इन पर बनी दिशाओं को कभी देखो ना ॥
पलकों को कैसे बोलूं कि अब कभी झपको ना ..
सासों को कैसे बोलूँ कि अब कभी बहो ना ॥
इस दिल को कैसे बोलूँ कि अब कभी धड़कओ न ..
इस जुबां को कैसे बोलूँ कि अब कभी बोलो न ...
एक बार बस देख लूँ तुम्हें फिर न कहूँगी की कभी देखो ना ..
छू कर एक यकीं कर लूं फिर न कहूंगी कि कभी देखो ना..
तुमसे मिल कर एक सुकून पा लूँ फिर न कहूँगी की कभी देखो न..
छूटेगा फिर अगर संग जिन्दगी से भी मेरा तब भी ना बोलूंगी की ..

कभी देखो ना ..कभी देखो ना ..

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