Wednesday, October 31, 2007

एक सोच


तारे हैं कम .. या दामन ही छोटा हो चला है
वक्त नहीं कटता या दिन ही बड़ा हो चला है

पाँव नहीं थकते .. या पड़ाव ही पास हो गया है
अभी शाम नहीं हुयी या घर ही दूर हो गया है

तन्हाई आस पास है.. या इक साथी ही मिल चुका है
आँखें बंद न होवें, या मेरा चैन ही खो गया है

हकीक़त अब सामने है ..या परदा ही उठ गया है
कलम अब खाली है या एहसास ही सो गया है..

1 comment:

डाॅ रामजी गिरि said...

"कलम अब खाली है या एहसास ही सो गया है"

न कलम ही खाली है न एह्सास सोये हैं...
बस धुन्ध के चादर की परतें अनेक हो गई है.
बहुत ही नायाब पंक्तिया लिखी है आपने.