Tuesday, October 30, 2007

चाँद का दर्द


चेहरे पे एक अमिट दाग़ का निशाँ
नसीब में मेरे अँधेरा सिर्फ रात का .
मेरा कोई मुक़र्रर रूप नहीं किया
रौशनी के लिए भी.. मोहताज किया..
क्यों पूजती हो मुझे.. ?
अपने प्रेम की लम्बी उम्र के लिए .
जब मैं अपनी ही चांदनी का ,
कभी मुहाफिज़ न हो सका..

1 comment:

Unknown said...

very gud keep it up dost.