Monday, October 1, 2007

ऐसा कभी आसमा ही नहीं मिला


ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..
जिसकी छत से तारों को देखना सकूं ऐसा कभी मकान ही नहीं मिला ..

घर महका हो जिसके आने पर ऐसा कभी मेहमान ही नहीं मिला ...

ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

दिल बहला सके मेरा जो तनहाई में ऐसा कोई साजोसामान ही नहीं मिला ।

ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

रूह तक मेरे जो शामिल हो जाये ऐसा कोई फ़रहान ' ही नहीं मिला
ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

3 comments:

Sanjeet Tripathi said...

सुंदर!!
बढ़िया लिखती हैं आप!!


यदि आप किसी हिंदी ब्लॉग्स के किसी एग्रीगेटर्स से संबद्ध नही है तो कृपया
http://blogvani.com/
देखें और यहां पर अपने ब्लॉग को रजिस्टर करवा लें इससे न केवल आप दूसरों के हिन्दी ब्लॉग पढ़ सकेंगी बल्कि आपको भी पाठक मिलेंगे!!
शुभकामनाएं।

डाॅ रामजी गिरि said...

रूह तक मेरे जो शामिल हो जाये ऐसा कोई फ़रहान ' ही नहीं मिला
ख्वायिशें ढ़ेर सारी संजो सकूं ऐसा कभी आसमान ही नहीं मिला ..

अकेलेपन के दर्द को बयां करती खूबसूरत रचना है आपकी.

Dr.Kumar Vishvas said...
This comment has been removed by the author.