Friday, November 30, 2007

इस दुनिया में हर एक शख्स


रेत के पानी में खोकर ख़ुद को अपनी प्यास बुझा रहा है..
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

काटों के बिस्तर में जर्जर चादर ओढ़ अपनी थकान मिटा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

जले कागजों औ' खाली बोतलों के बाज़ार में जाने क्या खरीद रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

मजबूरी की अपनी इस मिटटी से बनावटी मुस्कानें उगा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

घंटों और क्षणों की सुइयों में फँसी बस अपनी सासें छुड़ा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है..

2 comments:

डाॅ रामजी गिरि said...

"घंटों और क्षणों की सुइयों में फँसी बस अपनी सासें छुड़ा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है.."

ज़िन्दगी की बेदर्द सच्चाईयों को आइना दिखाने का काम किया है आपने .रचना लयबद्ध और खूबसूरत बनी है .

Anonymous said...

मानव के अन्तर्मन के कष्ट का सटीक चित्रण, अति सुन्दर कृति|