Monday, November 26, 2007

वो नज्म




रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ज़्यादा लगी ...

कभी कुछ समझा ..कभी कुछ भूला
कभी कुछ गौर करके उसे भी भुलाया ..
कुछ नज़रंदाज़ करके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम बेरुखी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

उसको रोका भी न था मैंने
मन को मनवाया भी न था मैंने
'उनकों ' तरसाके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम दिल्लगी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

अब हंसती हूँ तो अकेले में
अब गाती भी हूँ तो अकेले में ..
महफिल न जाकर कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम सादगी ज़्यादा लगी ॥

रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ,बेरुखी ,दिल्लगी और सादगी ज़्यादा लगी ...

1 comment:

डाॅ रामजी गिरि said...

"उसको रोका भी न था मैंने
मन को मनवाया भी न था मैंने
'उनकों ' तरसाके कभी एक नज़्म लिखी "
pehle ye ..
fir---

अब हंसती हूँ तो अकेले में
अब गाती भी हूँ तो अकेले में ..
महफिल न जाकर कभी एक नज़्म लिखी ,
Is tarah ke bhav..
ek hi rachna me nazm likhte -likhte aapne to prem ka digdarshan kara diya.. bahut khoob.