Monday, September 24, 2007

ए मौला ..


मेरी आंखों के हर एक आंसू को किसी प्यासे का जल कर दे, मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला

औंधे बेजान पडे कुछ सपनों में आज थोड़ी सी हलचल कर दे, मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला

हर परिंदा बसेरे को लौटे इस मियाद को एक पल कर दे , मौला
जिस बन्दे का मकसद नेक हो उसकी हर मुश्किल हल कर दे,मौला


Thursday, September 20, 2007

उम्र के यह अठआयिस वर्ष


सत्रह मई उन्नीस सौ उन्यासी
और छः बजकर बीस मिनट
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

दादी की गोद से माँ के आँचल तक
बाबा की छाया से बहन के साथ तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

चार बाग़ के स्कूल से "आई पी एम " तक
बचपन के घर से विकास नगर तक
लखनऊ से फरीदाबाद तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

अपने पहले लाल भालू से
सचमुच के "मानस " तक
अवी के मधुर प्रेम से
लवी की प्यारी आंखों तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष ..
विवाह की अनगिनत स्मृतियों से
ताज महल की छवियों तक
दो वर्ष की ख़ुशी और गम से
उन नन्हे पैरों की आशा तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

एक बेटी.. एक बहन..
फिर एक पत्नी एक बहु
और आज माँ बनने की ख्वायिश तक
उम्र के यह अठआयिस वर्ष।

Wednesday, September 19, 2007

यादें




होंठों को मुस्कान देती यादें तो कभी,
आंखों को हमाम बनाती यादें॥

उम्मीदों को आग देती यादें तो कभी ,
ज़हन पर दाग छोडती यादें ॥

आसमान को देख उड़ने को कहती तो
कभी
दरवाज़ा बंद कर रोने को कहती यादें

पल पल चुनके डायरी लिखने को कहती यादें तो कभी उनको
महज़ कागज समझ फाड़ वाती, जल्वाती, और धुआं बनवाती यादें.

Tuesday, September 11, 2007

पीहर से चलते चलते..


माँ अन्तिम शय्या पर है,
बाबा छुप छुप के रोते हैं.

घर मेरा उलझा सा पडा है.
सन्नाटे हर दम गूंजते हैं॥
माँ इतना जान लो, कि में जा तो रही हूँ ..पर
अपनी आत्मा , अपना वजूद सब तुम्हारे पास छोड़े जा रही हूँ॥
तुम बस अपना ख़्याल रखना माँ !

मेरी व्यथा यह है कि मैं एक लड़की हूँ.
न मैं पीहर की हो सकी हूँ और न मैं ससुराल की हूँ....
मैं चुप रहती हूँ तो लोग मुझे असामाजिक कहते हैं..
जब बोलती हूँ तो सभी मुझे निर्लज्ज कहते हैं..
मैन जब रोती हूँ तो लोग मुझे बेचारी या फिर ढोंगी बुलाते हैं.
मैं जब जब हंसूं तो स्वार्थी बोल लोग धिक्कारते हैं..
बड़ी अजीब सी जिन्दगी है मेरी
खाली हाथ और खाली से दिन
खाली सी सांझ खाली से पलछिन ।

आईने में मैंने जब जब अपनी सूरत निहारी है

तब तब अक्स ने कहा है ..

मुझे जिन्दगी नाम की बीमारी है..


Thursday, September 6, 2007

निसार किया मैंने ..

एक सांस से दूसरी सांस जहाँ तुमने जोडी उस फसेलाह में मुझे कभी देखो ना
पलकों की झपक से दूसरी झपक के उस हर एक लहेजाह में मुझे कभी देखो ना

धड़कन की मद्धम सरगम में रंगी हर इक गिरह में मुझे कभी देखो ना
जिस्म की हर हलचल और रगों में दौडते हर कतरे में मुझे कभी ना

लिखा तुमने जिससे मजबूर होके आज तक , उस आशिकानाह में मुझे कभी देखो ना
साहिल से टकराकर वापस सागर को लौटती उस लहर लहर में मुझे कभी देखो ना
तराजू के उस मजबूर कांटे में उलझी दर गुज़र में मुझे कभी देखो ना
काजल घुलकर जो रुखसार पे बिखर गया ,उस ख्वायिश की सूखते शराबोरों में मुझे कभी देखो ना
फिर अपने जिस रुमाल से उसको पोंछा उसके रेशों में बाक़ी एक दाग में मुझे कभी देखो ना

सामने होकर भी तुम कितने धुंधले दिखते हो नम आखों से देखती हूँ जब भी ,तुम मुझे अपने लगते हो
पथराई आंखों में उफनते कई एक सैलाबों में मुझे कभी देखो ना ..

जो कभी दर्मन्दाह ना होंगी उन नज़रों निगाहों में मुझे कभी देखो ना

इश्क से वाबस्ता जो चश्म है तुम्हारी , उस नज़र की बेबाकी को कभी देखो ना
जो
खुद में एक खुदा पोशीदा है उसकी अल्ताफे खुदाई को कभी देखो ना

सजदा .

शीशे के अपने इस दिल में उभरती मेरी शक्ल को कभी देखो न ...
मेरी होंठों पे गहराती उस हँसी की वजह को तुम कभी देखो न ...
देख कर जो अनदेखा करते हो उस रुखसार को कभी देखो न ..
सुन कर भी जो अनसुना करते हो उस इजहार को कभी देखो न ..

सुहानी सुबह से लेकर मस्तानी शाम तक कभी देखो न ..
सौंधी ज़मीन से लेकर नीले आसमान तक कभी देखो न ..
ताल्लुक इस कदर गहरा है की .. पलकें अपनी बंद करके कभी देखो न ...
जज्बों से उभरी दरारों से ये दीवारें चन्द करके कभी देखो न ...

जो हर हकीकत से भी हक हों उन तसवुर्रों को कभी देखो न
खुली आंखों से दिन के उजाले में उन सितारों को कभी देखो न ..
ख़ुद से होती तुम्हारी बातों को फिर मुझसे हुई मुलाकातों को कभी देखो न ..

फर्क नहीं मिलेगा तुम्हें ज़रा भी ,
ज़रा इन राज़ -ओ -नियाजों को कभी देखो ना

उस मखमली असर और अपनी खुशनुमा नींद में कभी देखो न ..
फिर अपने ख्वाबों के भी दायरे से कहीँ दूर जाके कभी देखो न ..
करवटों पे न टूटें ऐसी इस्तिराहतों में कभी देखो न ..
दो मज़हब मिल जाएँ जहाँ उन अफाकों में कभी देखो न ..

हम तो बेखुदी के आलम में किस कदर गिरफ्तार हैं यह कभी देखो न ..
की हमारी नशीली नज़रों में अब तक कायम असरार है यह कभी देखो न ..
तनहा पलों ,दुष्कर मौसमों और उन पाँच रातों में मुझे कभी देखो ना ..
अपनी तड़पन ,अपनी धड़कन और अपनी आखों की शबनम में मुझे कभी देखो न ..


नज़र आपकी जहाँ जहाँ गयी ..वोह हर जगह मेरे लिए काबिल -ऐ -सजदह है ..
अब यह कहना मोहब्बत की जाक होगी की हमदम मेरा मेरे लिए आली -जाह है . .

एक शायर की अदा

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
निढाल कश्ती को उठा कर गिराती एक लहर को कभी देखो ना ..

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
बस चार रात बिताकर चुराती एक नज़र को कभी देखो ना ..

एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
वक्त को भूल काटों को थमाती एक गज़र को कभी देखो न ..


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
अपनी ही शाखों को तोड़ गिराती एक शज़र को कभी देखो ना ..


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
की चाहकर भी आँखें न खुलें इक्क ऐसी सहर को कभी देखो ना .....


एक शायर की अदा के ऐसे एक संगीन असर को कभी देखो ना ,
तजुर्बों को आज तर्कों से बताती 'बस एक सिफर ' को कभी देखो ना

मेरी मिट्टी ही अलग है..


एक अडियल वृक्ष जैसे बन चुकी हूँ मैं
ज़मीन में दूर तक समां चुकी हूँ मैं


जिस घर की मैं पचीस बरसों तक छांव बनी॥
उस आंगन से अस्तित्व अलग होता हुआ और
ख़ुद को उखडता हुआ देखना , मुझे गवारा नहीं.........

इल्तजा ..



अपने इश्क की कलम से उतरती अहसासों की स्याही
इंतज़ार की मुश्किल घड़ियाँ गिन गिन कर
मेरी खैरियत की दुआ करती कई धागों सी ही
उन्ही कई वादों से सराबोर गजलों में ..
यादों से रंगी मुझे सारी लड़ियों में ,
कभी देखो ना..

कल शायद मेरी हंसी झुर्रियों में हो जाए गुम और
उम्र इजाज़त न दे आने को तुम्हारी बज्मों में कि
अलफ़ाज़ भी तब और सूखे हों चले
इसलिए आज आज अपनी मसरूफियत से जुदा कर वक़्त के पन्ने
जीं भर कर यह लिख दो कि ..
कभी देखो ना..
इस बार बार कि इल्त्जाओं में लिपटे मेरे किसी इजहार को कभी देखो ना
तुम्हें सोच सोच कर जो रात काटी उस अख्तार्शुमार को कभी देखो ना
राहों में जो नज़रें आज भी पडी हैं उन पत्थरों को कभी देखो ना
गुजरने पर तुम्हारे ,कानों पर पड़ती उन सदाओं को कभी देखो ना
भटक जाओगे , आगे जाके एक बार इन पर बनी दिशाओं को कभी देखो ना ॥
पलकों को कैसे बोलूं कि अब कभी झपको ना ..
सासों को कैसे बोलूँ कि अब कभी बहो ना ॥
इस दिल को कैसे बोलूँ कि अब कभी धड़कओ न ..
इस जुबां को कैसे बोलूँ कि अब कभी बोलो न ...
एक बार बस देख लूँ तुम्हें फिर न कहूँगी की कभी देखो ना ..
छू कर एक यकीं कर लूं फिर न कहूंगी कि कभी देखो ना..
तुमसे मिल कर एक सुकून पा लूँ फिर न कहूँगी की कभी देखो न..
छूटेगा फिर अगर संग जिन्दगी से भी मेरा तब भी ना बोलूंगी की ..

कभी देखो ना ..कभी देखो ना ..