Friday, November 30, 2007

इस दुनिया में हर एक शख्स


रेत के पानी में खोकर ख़ुद को अपनी प्यास बुझा रहा है..
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

काटों के बिस्तर में जर्जर चादर ओढ़ अपनी थकान मिटा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है

जले कागजों औ' खाली बोतलों के बाज़ार में जाने क्या खरीद रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

मजबूरी की अपनी इस मिटटी से बनावटी मुस्कानें उगा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है ..

घंटों और क्षणों की सुइयों में फँसी बस अपनी सासें छुड़ा रहा है
इस दुनिया में हर एक शख्स जीने का अभिनय कर रहा है..

Thursday, November 29, 2007

मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...


मुझे याद है अपना वह सफर
जिसमें वो हमसफ़र मुझे मिला था ..
बस के उस शोर और भीड़ भाड़ में भी
दिल को किसी दिल से संकेत मिला था ..

मैंने अपने बारे में बेहिचक बताया,
जब उसने मेरा नाम पूछा था .
सुना जब , हंस के यह कहा की
अरे ! मैंने तो ज़िंदगी सोचा था ..

मैंने भी उससे परिचय माँगा था
वह जाने क्यों मुकरने लगा था
मेरे खफा होने पर फिर
मुझे देख मुस्कुराने लगा था ॥?


बातचीत का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ
मुझे वह सफर मंजिल सा लगने लगा
हम एक दूसरे से कितना मिलते थे .
उससे आँखें हटाना मुश्किल सा लगने लगा

कितना जादू था उसकी बातों में ..
और तहजीब ऐसी जो सबको लुभा रही थी
मैं उसके बगल मैं बैठी
अपनी किस्मत पे इतरा रही थी ..

एक रोते बच्चे को उसने गोद में बैठाया
हर एक कोशिश कर उसको शांत कराया
खांसते हुए एक बाबा को अपनी बोतल से
सारा पानी पिला कितना पुण्य कमाया ..

बस जैसे जैसे चलती जा रही थी
मैं उस अनजाने की होती जा रही थी
एक फ़ैसला मन में कुछ कर लिया था
किसी जज्बे की हिमायती हुयी जा रही थी

मेरा सफर अब खत्म हो चुका था ..
उतरी इस खयाल से की ज़रूर
पीछे से कोई आवाज़ आएगी ..
पता चाहता हूँ आपका ..कहेगा ,
..कि मुझे आपकी याद बहुत आएगी

मेरा अंदाजा ग़लत था ..
मैं थकी चाल से चलने लगी थी
धूल उड़ा कर मेरे चेहरे पे
वह बस अब बोझिल होने लगी थी

रात उसी के ख्यालों में बीती
आँखें सुबह उठी तो गीली थी
उसका चेहरा याद आ रहा था ..
दिल उसकी तरफ़ भागा जा रहा था .

फिर एक ख़बर पढी
अखबार पर जब नज़र पढी
कल एक बस में विस्फोट हुआ
मेरी आखों में जैसे अँधेरा छाया !
कल बैठे कई मित्र बने थे
आज .. सब खत्म हो चुके थे


हुलिया जो उसका उस कागज़ पे ज़िक्र हुआ था
यही जाना कि मेरा शख्स एक 'मानव -बम ' था
ले गया अपने संग कितने प्राणों को ..
अब जाना .. क्यों मुझे ज़िंदगी पुकारा था ..

उसने अपना यह बदनुमा और ज़ुल्मी पहलू
मेरी नज़रों से किस तरह बचा रखा था
मैं आज मातम करूं तो कैसे उन बिखरे फूलों पर ..
कि ..मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...


बच के रहिएगा आप भी ऐसे किसी मुखौटे से
जो संग चले आपके .. पर मकसद एक न हों ..
आपके ज़हन पर छा जाए एक बादल कि तरह
पर उसके मनसूबे और इरादे नेक ना हों ..


आप भी न वह पछतावा करें जो मैंने कभी किया था ..
जुबान से न कभी यह निकले
कि ..मैंने तो उस मुखौटे से प्यार किया था ...

Tuesday, November 27, 2007

.. और मैं जीती गयी


प्यास लगी और पानी सामने मिला
बुझाई तो मैंने , लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..समंदर खारा ही मिला
और मैं पीती गयी , और मैं जीती गयी .

दिल लगा और दिलबर का संग मिला
मुकाम हुआ मेरा ,लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि.. मकान खाली ही मिला
और मैं रहती गयी ,और मैं जीती गयी

थकान हुयी और पलंग मिला
नींद आ गयी ,लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..अलग जहाँ होता गया
और मैं सोती गयी , और मैं जीती गयी

शायरी सूझी और लव्ह -ओ -कलम मिला
लिखा बहुत कुछ , लेकिन
अरमान पूरे हुए कुछ इस तरह
कि ..माहौल ग़मगीन बन गया
और मैं लिखती गयी , और मैं जीती गयी



Monday, November 26, 2007

वो नज्म




रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ज़्यादा लगी ...

कभी कुछ समझा ..कभी कुछ भूला
कभी कुछ गौर करके उसे भी भुलाया ..
कुछ नज़रंदाज़ करके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम बेरुखी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

उसको रोका भी न था मैंने
मन को मनवाया भी न था मैंने
'उनकों ' तरसाके कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम दिल्लगी ज़्यादा लगी ...
रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..

अब हंसती हूँ तो अकेले में
अब गाती भी हूँ तो अकेले में ..
महफिल न जाकर कभी एक नज़्म लिखी ,

वो नज़्म भी नज़्म कम सादगी ज़्यादा लगी ॥

रात भर जागकर कभी एक नज़्म लिखी ..
वो नज़्म भी नज़्म कम झपकी ,बेरुखी ,दिल्लगी और सादगी ज़्यादा लगी ...

सिर्फ़ एक दिखावा है..

असलियत के बुत पर जैसे .. नकली पहनावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

आंखों से जो दिखता .. वो तो एक छलावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

न मिलेगा चैन तुझे यहाँ ,यह मेरा दावा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

एक पल की मोहब्बत ही अब आब -ओ -हवा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

हर दम भागते हम बंदो का क्या काशी क्या काबा है ..
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

न सोचने के लिए ख्याल है ,न जज्बों का जमावा है
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ..

अकेले दिन गुज़ारते हैं , आया न यार का बुलावा है ,
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है


लफ्जों से छलकता तेरा दर्द पाता बस वाह - वाह है
यह जीना भी क्या जीना ,सिर्फ़ एक दिखावा है ॥

Friday, November 23, 2007

ज़रूरी तो नहीं..


लाखों परिंदों को देखूं गर इस शहर में ..
ज़रूरी नहीं कि हर पंख आज़ाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

दूर तक फैली इन घनी भरी आबादियों में
ज़रूरी नहीं कि हर जान आबाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि दफा दाद मिले ..

हमसफ़र ढूँढती हूँ मैं जो इस तिशनगी में
ज़रूरी नहीं कि एक दिन वो दिलशाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

सोच रही हूँ जो बसाने महल मैं उम्मीदों का
ज़रूरी नहीं कि एक दर्हकीकत बुनयाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

वजूद पर करेंगे सारे सवाल मेरे अपने ही
ज़रूरी नहीं कि जवाब उन्हें मेरे बाद मिले .
लिखूं जब ज़ख्मों को हवा देने के लिए मैं
ज़रूरी नहीं कि हर दफा दाद मिले ..

Friday, November 2, 2007

कि.. , मुसाफिर हूँ मैं…


एक नए सफर और एक नई खोज के साथ
राहों में फिर , हाजिर हूँ में

कि.. , मुसाफिर हूँ मैं…

उलझे कई जवाबों मैं
एक सुलझा सा सवाल बन ,

ज़ाहिर हूँ मैं …
कि.., मुसाफिर हूँ मैं …

चलना ही मेरा मज़हब -ओ -इमान है ..
कोई कहता है कि ,
काफिर हूँ मैं

कि.., मुसाफिर हूँ मैं …

मंजिलों का पता नहीं मुझे
चला उन पड़ावों -की ही

खातिर हूँ मैं ..
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …

जब साँस टूटे और
खोने हौसला लगे
बोलूँगा बस कि ..
इंसा आखिर हूँ मैं
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …

Thursday, November 1, 2007

अनचाहा इजहार ..

जानती हूँ ,मोहब्बत तुमने मुझसे बेहद की ..
इन्तहा मेरी मजबूर , पर कम ना थी ....
फर्क बस इतना था ..वह सफर ही अजीब था ..
फासले बहुत थे और लम्हे नहीं थे
कभी तुम ..तो कभी हम , 'कहते ' नहीं थे ..

फिर जुदा हो गए रास्ते बदल गए ..
जाते जाते तुम कई बार मुडे ..तुम्हें देख हम भी रुके
आज तुमने मुझे बेक़दर कह ,वह सब कुछ भुला दिया है ..
और मैंने तुम्हें नादान समझ हर वक्त याद किया है ..हर पल याद किया है ..

हाँ .. तब भी किया था ..हाँ .. अब भी किया है ..

कभी न बात करना अब हमसे तुम मोहब्बत की यारा ,
निभाई मैंने हर रस्मे उल्फत , फिर भी अनगिनत इल्जाम हैं ..

यह कैसा दौर है ज़िंदगी का मेरा ..
तकिया रहता है नम मेरा ..ख्वाब आज फिर तमाम हैं ..